नई दिल्ली। विख्यात संगीतकार ‘नौशाद’ साहब ‘मदन मोहन’ जी के संगीतबद्ध गीत “है इसी में प्यार की आबरू …” से इतने प्रभावित थे कि एक बार उन्होंने कहा था … इस रचना के बदले मैं अपना पूरा संगीत ख़ज़ाना लुटाने को तैयार हूँ। ऐसा ही एक बार विश्वविख्यात शास्त्रीय गायक ‘उस्ताद आमिर ख़ान’ ने कहा था कि मदन मोहन साहब आप मुझे “क़दर जाने न मोरा बालम बेदर्दी …” गीत की कंपोजिशन दे दो, और मेरा सम्पूर्ण संगीत ले लो।
साथ ही मशहूर ठुमरी गायिका ‘बेग़म अख़्तर’ भी उनके संगीत संयोजन से तो प्रभावित थी हीं, साथ ही वे उनकी गायिकी से भी बेहद प्रभावित थीं। उनके अंदर एक उच्चस्तरीय गायक के सभी गुण थे। मदन मोहन जी के साथ अक्सर ऐसा हुआ है कि उनकी फ़िल्में वाणिज्यिक दृष्टि से ज़्यादा नहीं चली, लेकिन उनके गीत संगीत ने इतिहास रच दिया। 1970 में आई फ़िल्म ‘दस्तक’ के नग़्मे आज भी संगीत प्रेमियों के दिल में बसे हैं। जैसे … “माई री मैं का से कहूँ पीर अपने जिया की …” इस गीत को लता जी के पहले मदन मोहन जी ने भी अपनी आवाज़ में रिकॉर्ड कराया था।
जो फ़िल्म के अल्बम में भी रिलीज़ हुआ है। आज बात करते हैं, इसी फ़िल्म से एक और खूबसूरत ग़ज़ल “हम हैं मता-ए-कूचा-ओ-बाज़ार की तरह, उठती है हर निगाह ख़रीदार की तरह …”। मजरूह सुल्तानपुरी के बोल हैं और आवाज़, बताने की ज़रूरत नहीं … दरअसल ये ग़ज़ल मजरूह साहब ने फ़िल्म के लिए नहीं लिखी थी। उनकी एक पुस्तक में प्रकाशित ग़ज़ल के तीन शे’र ‘राजेन्द्र सिंह बेदी’ जी को बेहद पसंद आए और फ़िल्म की कहानी के लिये भी उपयुक्त लगे। नायिका अपने आप को “मता-ए-कूचा-ओ-बाज़ार …” कह रही है। जिसका मतलब है बाज़ार में बिकने वाला समान, जिस पर हर नज़र ख़रीदार के हैसियत से ही पड़ती है।
पूरी ग़ज़ल में उर्दू के कुछ ऐसे ऐसे शब्दों का इस्तेमाल किया गया है जो साधारणत: किसी फ़िल्मी गीत में ना के बराबर पाए जाते हैं। “वो हैं कहीं हैं और मगर दिल के आस-पास, फिरती है कोई शय निगाह-ए-यार की तरह …” में अगर नायिका अपने प्रेमी को अपने दिल के पास ही महसूस करती है, तो अगले ही अंतरे में मजरूह एक फ़ेहरिस्त तैयार करते हैं, उन लोगों की जिन्होंने नायिका को सच्चे दिल से चाहा लेकिन नायिका ही प्रेम की परीक्षा में असफल रही है। “मजरूह लिख रहे हैं वो अहल-ए-वफ़ा का नाम, हम भी खड़े हुए है गुनेहगार की तरह …”।
ये दोनों अंतरें एक दूसरे के विपरित हैं, जिनका महत्व इस फ़िल्म को देखकर समझा जा सकता है कि किस सिचुएशन में इस ग़ज़ल का फ़िल्मांकन हुआ है। एक और बात … फ़िल्म में पूरी ग़ज़ल का इस्तेमाल नहीं हुआ है।